DiscoverPratidin Ek KavitaItni Si Azadi | Rupam Mishra
Itni Si Azadi | Rupam Mishra

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Update: 2025-12-17
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इतनी सी आज़ादी । रूपम मिश्र


चाहती हूँ जब घर-दुवार के सब कामों से छूटूँ तो हर साँझ तुम्हें फोन करूँ

तुमसे बातें करूँ  देश - दुनिया की 

सेवार- जवार बदलने और न बदलने की 

पेड़ पौधों के नाम से जानी जाती जगहों की 

 

तुमसे ही शोक कर लेती उस दुःख का कि पाट दिए गये गाँव के सभी कुवें ,गड़हे साथी 


और ढेरवातर पर अब कोई ढेरा का पेड़ नहीं है  

अब तो चीन्ह में भी नहीं बची बसऊ के बाग और मालदहवा की अमराई की 

राह में चाहकर भी अब कोई नहीं छहाँता

 मौजे, पुरवे विरान लगते हैं 

 उनका हेल-मेल अब बस सुधियों में बचा है

नाली और रास्ते को लेकर मचे गंवई रेन्हे की


अबकी खूब सऊखे अनार के फूलों की 

तितलियाँ कभी -कभी आँगन में भी आ जाती हैं इस अचरज की


गिलहरी , फुदगुईया और एक जोड़ा बुलबुल आँगन में रोज़ आते हैं कपड़े डालने का तार उनका प्रिय अड्डा है

कुछ नहीं तो जैसे ये कि आज बड़ा चटक घाम हुआ था

और कल अंजोरिया बताशे जैसी छिटकी थी 

तुममें ही नहीं समाती तुम्हारी हँसी की  

 या अपने मिठाई-प्रेम की 

 तुम्हारे बढ़ते ही जा रहे वजन की

 जिसकी झूठी चिंता तुम मुझसे गाहे-बगाहे करते रहते हो

और बताती कि नहीं होते हमारे घरों में ऐसे बुजुर्ग कि दिल टूटने पर जिनकी गोद में सिर डाल कर रोया जा सके 

और जीवन में घटे प्रेम से इंस्टाग्राम पर हुए प्रेम का ताप ज़रा भी कम नहीं होता साथी , इस सच की 


याद दिलाती तुम्हें कार्तिक में जुते खेतों के सौंदर्य की 

अभिसरित माटी में उतरे पियरहूँ रंग की


और बार - बार तुमसे पूछती तुम्हें याद है धरती पर फूल खिलने के दिन आ गये हैं  


इतना ही मिलना हमारे लिए बड़ा सुख होता 

इतनी सी आज़ादी के लिए हम तरसते हैं 

और सब कहते हैं अब और कितनी आज़ादी चाहिए ।


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